भगवान सम्भवनाथ जी: जैन धर्म के तीसरे तीर्थंकर
भगवान सम्भवनाथ जी, जैन धर्म के तीसरे तीर्थंकर हैं। प्रभु सम्भवनाथ का जन्म मार्गशीर्ष शुक्ल 15 तिथि को श्रावस्ती के नगरी राजा जितारि के घर हुआ था।
सम्भवनाथ जी के जन्म की कथाएं (Stories of Jain Trithankar- Sambhavnath Ji)
गर्भावस्था के दौरान सम्भवनाथ जी की माता ने चौदह मंगल स्वप्न देखे। भगवान सम्भवनाथ का चिह्न अश्व (घोड़ा) था। कहा जाता है कि एक बार क्षेमपुरी के राजा विपुलवाहन के राज्य में भयंकर अकाल पड़ा। पानी की बूँद- बूँद के लिये जनता तरस रही थी। राजा ने धान्य भंडार प्रजा के लिये खोल दिये और प्रजा की तृष्णा शांत करने लगे। बुरे समय में राजा कई बार बिना अन्न ग्रहण किए सो जाता और प्यासे कंठ से ही प्रभु की आराधना करता।
कुछ समय पश्चात राज्य में वर्षा हुई और बुरा समय खत्म हो गया, किन्तु प्रकृति का यह प्रकोप देखकर राजा का मन संसार से विरक्ति हो गया और अपने पुत्र को राज्य सौंपकर वह साधु बन गये। साधु विपुलवाह को मोक्ष प्राप्त हुआ और वहीं से श्रावस्ती नगरी में भगवान सम्भवनाथ के रूप में अवतरित हुए।
सम्भवनाथ का जीवन परिचय
कहा जाता है कि महाराज सम्भवनाथ जी को संध्याकालीन बादलों को देखकर वैराग्य की प्रेरणा हुई। सम्भवनाथ जी ने राज्य के उत्तराधिकारी को राज्य का भार सौंपकर दीक्षा ग्रहण की। चौदह वर्षों की छदमस्थ साधना के पश्चात सम्भवनाथ जी ने केवल ज्ञान प्राप्त कर धर्म तीर्थ की स्थापना की और तीर्थंकर की सूची में शामिल हुए। प्रभु सम्भवनाथ ने चैत्र शुक्ल पंचमी को सम्मेद शिखर से निर्वाण प्राप्त किया।
चिह्न व उसका महत्त्व (Importance of Symbol in Hindi)
भगवान सम्भवनाथ के चरणों चिह्न या प्रतीक ‘अश्व’ यानि घोड़ा है। जिस प्रकार लगाम कसा हुआ अश्व युद्ध के मैदान में अपनी अहम भूमिका निभाते हुए विजय प्राप्त कराता है, ठीक उसी प्रकार संयम बरतने से मनुष्य अपने जीवन में विजय प्राप्त कर सकता है। संयम और ज्ञान की शिक्षा हमें अश्व से मिलती हैं।
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