तीर्थंकर महाप्रभु पद्मप्रभु

🙏🏻 तीर्थंकर महाप्रभु पद्मप्रभु 🙏🏻
द्वीपसमूह की शोभा जम्बूद्वीप..रमणीय कलाओं,मुक्तिवधुके अनंत जीवोका जन्मदात्रा,आज अपने कीर्तिमुकुट की शोभा बढ़ाते हुए आत्यंतिक हर्षित मुद्रामें स्वयंचित्त था। कारण ही असाधारण था,अनंतखंड के अधिपति आज अपने अंतिम भव को लेकर उसके कोख में अवतरित हुए थे।.....
इश्वाकुवंश के काश्यपगोत्र धारी राजा धरण आज कौशाम्बी को सुसज्जित कराने स्वयं ही लगे हुए थे।किसी प्रकारकी त्रुटि वह जानना और देखना नहीं चाहते थे।पितृहृदय ही कठोर नहीं होता यह प्रत्यय आज कौशाम्बी की धरा देख रही थी।
माता सुसीमा जगतमाता हुयी....अपराजित विमानवासी अहर्मिन्द्र ने आज माता के गर्भ से जन्म लिया था,,पद्मप्रभु नामसे संसार ने जयकारा लगाया...वह पूण्यतिथि कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष के त्रयोदशी की थी.... दो सौ पचास अवगाहना से मंडित तथा तिस लाख पूर्व आयुके धारी पद्मप्रभु तीर्थंकर सुमतिनाथ भगवान के नब्बे हजार करोड़ सागर वर्ष पश्चात अवतरित हुए थे।
जीवन में सुख का समय कब बीत जाता है पता ही नहीं चल पाता,दुःख की घड़िया जल्दी नहीं बितती, जीवन में मोड़ कब आये बताना असंभव सा होता है,ठीक ऐसा ही समय उस क्षण आया जब काल की गति भी ठहराव लेकर आयी....सोलह पूर्व कम तक की आयु का उन्होंने भोगादि में व्यय कर लिया..और अचानक ही वह संसारप्रिय घटना साक्षी बनी ...भगवान का अतिप्रिय विशालकाय हाथी अचानक राजदरबारमें आकर बैठ गया...चारो प्रकारके अन्न-जल परोक्ष रखकर भी उसकी तरफ न देखते हुए अश्रुपूरित नेत्रोसे उसने अपने प्राण छोड़ दिए,अपने प्रिय हाथी का मरण देख प्रभु विचलित हुए और श्रुष्टि का अकल्पनिय घटना का जन्म हुआ..भगवान को जातिस्मरण हुआ और उसी समय उन्होंने अपना राज्यभार त्याग मुनिव्रत को अंगीकार कर लिया...!
मनोहार नामक वन की और प्रस्थान कर भगवान ने कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन गोधूलिके समय एक हजार राजाओ के साथ निर्ग्रन्थ दीक्षा अंगीकार कर ली!!
पुनः एक कांतिओज की प्रसून कालिया जन्म लेनेवाली थी..वर्धमान नगर आज अपनी धन्यता मनानेवाला था...राजा सोमदत्त अत्रो-अत्रो कहकर सुखद आलाप कर रहे थे...और मुनिराज पद्मप्रभु ने राजा द्वारा पड़गाहन को स्वीकारा,आहार सफल हुआ..पंषाश्चर्य हुए।देवोने जयकारा लगाया,और पुनः प्रभु जंगल की और प्रस्थापित हुए,छद्मस्थ अवस्था के छः माह समाप्त हुए...और अपने ही दीक्षावन अर्थात मनोहार वन में शिरीष वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ होकर चैत्र शुक्ल पूर्णिमा के शुक्ल समय में प्रभु चार घातिया कर्मो को दण्डित करने में सफल हो गए।
जहां प्रत्येक जिव को समता पूर्वक आश्रय प्राप्त होता है ऐसे महान समवसरण की रचना हुयी,जिसमे एक सौ ग्यारह गणधर सहित तिन लाख तिस हजार मुनिदेव, चार लाख बिस हजार आर्यिकाये,तीन लाख श्रावक,पांच लाख श्राविकाएं,असंख्यात देव-देवियां तथा नाना तिर्यंच ने अपने आत्मा का कल्याण कमल चिंन्ह धारी प्रभु की दिव्य-ध्वनि सुन प्राप्त किया।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी का वह अंतिम अवसर...गिरी सम्मेद पुनः आज अपने शिरोमुकुटमें एक तीर्थंकर को धारण करनेवाला था...एक हजार मुनिराजों के साथ भगवान ने प्रतिमायोग धारण किया...शेष कर्मो ने भी हार मान ली ...भगवान ने महानिर्वाण प्राप्त किया...और भगवान जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्रके छठवे तीर्थंकर बन गए,ऐसे महान ज्योतिपुंज आत्मा को मै निलमैत्री भक्तिवश नमन करती हूंI

पद्मप्रभ
छठे जैन तीर्थंकर
Padmaprabha.jpg
पद्मप्रभ भगवान की प्रतिमा
विवरण
अन्य नामपद्मप्रभ जिन
एतिहासिक काल१ × १०२२१ वर्ष पूर्व
शिक्षाएंअहिंसा
गृहस्थ जीवन
वंशइक्ष्वाकु
पिताश्रीधर धरण राज
मातासुसीमा
पंच कल्याणक
जन्मकार्तिक कृष्ण १३
जन्म स्थानवत्स कोशाम्बी
मोक्षफागुन कृ ४
मोक्ष स्थानसम्मेद शिखर
लक्षण
रंगलाल
चिन्हकमल
ऊंचाई२५० धनुष (७५० मीटर)
आयु३०,००,००० पूर्व (२११.६८ × १०१८वर्ष)
शासक देव
यक्षकुसुम
यक्षिणीअच्युता

Comments

Popular posts from this blog

भगवान सम्भवनाथ जी: जैन धर्म के तीसरे तीर्थंकर

जैन धर्म के पाँचवें तीर्थंकर : सुमतिनाथ

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ